Sunday, December 07, 2008

मंजिल या रस्ता

इस पल की पहेली में
सुलझते कितने ख्वाब
नज़रों की हर ख्वाहिश
पास आकर इतरा रही

रास्ते तो हैं कई सही
पत्थरों की चादर से ढके
हैरानी बस इस बात की
रास्तों का कोई छोर नहीं

कसूर मेरा है या रास्तों का
मंजिल ने तो कब का कह दिया
या तो मंजिल मिलेगी या रास्ता
पर रस्ते बिन मंजिल कहां

सुनी मन की करी मन की
बस मन के रस्ते पे चल पड़ा
कह रहा धीमे से मन, बढ़ा कदम
रास्ता ही मंजिल है, मंजिल रास्ता

Two roads diverged in a wood, and I—
I took the one,
And that has made all the difference.

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