एक थे प्यारे लालाजी
पहनते थे वह पजामा जी
शान से निकलते
पैदल गाड़ी पे सवार होके
नयनों पे चश्मा
कुर्ता कभी नहीं अपना
तोंद का व्यास
था पचपन के पास
उनकी मूँछ
लगती गाय की पूंछ
सर पे चांद यूं चमकायें
करवा चौथ का व्रत पूरा हो जाए
ज्यों ही सड़क पे कदम रखते
पतली गली के कुत्ते पकड़ लेते
केले के छिलकों पे गिरते-फिसलते
बचते बचाते दुकान पहुँचते
लाला की दुकान
नीची दुकान फीके पकवान
आटे-दाल का भाव
भगा देता था उल्टे पांव...
Can't remember the rest of the lines.
One of my first poems, written in class 8th.
Sunday, November 16, 2008
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