Wednesday, March 11, 2009

फल हो ना हो


यूँ ही खिलता रहे सूरज
बादलों की छुट्टी कर
जीते पूरब-पश्चिम मैराथन
थक हार मुरझाये
चंदा उसकी कुर्सी पे बैठ जाये
बड़े सब्र के बाद सांझ की घड़ी आये

कभी हो शीतल मदमस्त पवन
कभी मंद हल्की गर्म बयार
बूंदों के डर से कभी
छाते की सताए याद

सांझ की बेला इंतज़ार का फल
चखो जो इसे सपने मीठे हो जायें
कभी जो अगले मुहूर्त तक
फल की डिलिवरी टल जाए
नीचे लिखी युक्ति आजमायें

कहते हैं फल हो न हो
इंतजार का पल जी भर जियो
सूरज यूँ ही आए जाए
चंदा कोई आकार दिखाए
बस सांझ की प्रतीक्षा में हम
यूँ ही बैठे रहें नज़रें बिछाये

Sunday, March 08, 2009

फूSSS

कमरे की हवा
को न जाने क्या हुआ

पंखे से दामन छुड़ाकर
कभी बिस्तर पे लेटती
कभी कपडों में छिप जाती

कैलेंडर
को गुदगुदाकर
उसे हँसता छोड़ जाती

झटके
भर में सरसराकर
पढ़ लिया पूरा अखबार
चादर पे गिरती फिसलती
कभी साकार कभी निराकार

अभी जो धीमे से
चेहरे को छूकर बालों से गुजरी
तो लगा उसने हाथ बढ़ाया

जब हवाओं में हो
इतनी खिलखिलाहट
हमारी कलम को क्या पता
हमने क्या खोया क्या पाया