Sunday, March 08, 2009

फूSSS

कमरे की हवा
को न जाने क्या हुआ

पंखे से दामन छुड़ाकर
कभी बिस्तर पे लेटती
कभी कपडों में छिप जाती

कैलेंडर
को गुदगुदाकर
उसे हँसता छोड़ जाती

झटके
भर में सरसराकर
पढ़ लिया पूरा अखबार
चादर पे गिरती फिसलती
कभी साकार कभी निराकार

अभी जो धीमे से
चेहरे को छूकर बालों से गुजरी
तो लगा उसने हाथ बढ़ाया

जब हवाओं में हो
इतनी खिलखिलाहट
हमारी कलम को क्या पता
हमने क्या खोया क्या पाया

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