हमारे तो अरमान कागज़ की कश्ती में बहते हैं|
थोड़ी सी बारिश हुई नहीं कि
उत्तरपुस्तिका के कोरे पन्नों से
हम अरमानों की कश्ती बनाकर
गली की पतली धारा में बहा देते हैं|
फिर उन अरमानों को बारिश निगले
या पड़ोस का गप्पू हथिया ले,
परवाह नहीं|
हमने तो बस अरमानों की कश्ती छोड़ दी,
अब वो किस मंजिल पे
किस धारा से होकर जायेगी,
परवाह नहीं|