हमारे तो अरमान कागज़ की कश्ती में बहते हैं|
थोड़ी सी बारिश हुई नहीं कि
उत्तरपुस्तिका के कोरे पन्नों से
हम अरमानों की कश्ती बनाकर
गली की पतली धारा में बहा देते हैं|
फिर उन अरमानों को बारिश निगले
या पड़ोस का गप्पू हथिया ले,
परवाह नहीं|
हमने तो बस अरमानों की कश्ती छोड़ दी,
अब वो किस मंजिल पे
किस धारा से होकर जायेगी,
परवाह नहीं|
3 comments:
क्या हो गयी इन अरमानों से कोई खता
कि बिन परवाह बहा देते हो इन्हें
या है मुक़द्दर पर इतना यकीं
कि परवाह करने की जरुरत ही नहीं!
सुन्दर शब्दों के लिए शुक्रिया :)
जब अरमानों ने कोरे कागज़ पे स्वरूप लिया,
कश्ती के सहारे सागर से मिलने की प्रेरणा ली,
हम यह पूछना भूल ही गए कि फिर मुलाकात कब होगी|
परवाह भी है, भरोसा भी, जब भी उनकी खबर मिलेगी, ख़ुशी होगी इस बात की कि हमने एक अरमान देखा|
"क्या हो गयी इन अरमानों से कोई खता
कि बिन परवाह बहा देते हो इन्हें
या है मुक़द्दर पर इतना यकीं
कि परवाह करने की जरुरत ही नहीं!"
ये पंक्तियाँ 'कश्ती' की पंक्तियों को बहुत अच्छी तरह समझती हैं|
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